मुझे हमेशा से बहुत ज्यादा गुस्सा आता था बचपन में, इस बात का गुस्सा की सूरज शीत ऋतु में पाँच बजे ही क्यु डूब जाता है! हमें प्रत्येक सुबह क्यु उठना पड़ता है पापा की डांट से, बचपन का गुस्सा तो फ़िर भी बचपना था! पर उम्र बढ़ती गयी गुस्सा आने की वजह भी बढ़ती गयी जैसे...

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इस बात का गुस्सा की मैं किसी के इश्क़ में जकड़ कर क्यु रह गया,क्यु गुम हो गया तन्हाई में!क्यु नहीं अपना सका उसे, इस बात का गुस्सा की इस संसार में कोई भी किसी को अपने पैरों तले कभी भी रौंध सकता है,इस बात का गुस्सा की मनुष्य से बड़ा तबाही करने वाला हत्यारा आज तक कोई नहीं हैं

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इस बात का गुस्सा की मासूमियत का खत्म होना ही ऐसी चीज हैं जिसकी जमानत ज़िन्दगी बेशक़ दे सकती है,गुस्सा इस बात का कि इंसान का शरीर उन सब चीजों की हिफाज़त नहीं कर सकता जो इंसान के लिए मायने रखती है और फ़िर इस बात का गुस्सा की अगर हिफाज़त कर भी ले इंसान तब भी क्या बदल जाएगा?

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आख़िर में तो सब खत्म होना ही हैं! संसार में बहुत सारी चीज़े हैं जिसमें हम गुस्सा हो सकते हैं बहुत ज्यादा गुस्सा इतना गुस्सा की आपको मृत्यु तक पहुंचा दे, फ़िर ख़्याल आता है कि ये ज़िन्दगी भी मृत्यु से कम थोड़ी न हैं! चलो जी कर मर लेते हैं!....
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